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कहावतों, दलीलों की डगर पर बढ़ती राजनीति और 2019 का चुनाव

इस चुनाव में हर तर्क को उतनी ही मजबूत और विपरीत तर्कों से काटा जा रहा है. 

Shankkar Aiyar
नजरिया
Updated:
(फोटो: क्विंट हिंदी)
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(फोटो: क्विंट हिंदी)

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न्यूटन के गति के तीसरे नियम के मुताबिक ‘हर क्रिया के समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है’. मौजूदा चुनाव में यही नियम लागू होता दिख रहा है. हर तर्क को उतने ही मजबूत और विपरीत तर्कों से काटा जा रहा है.

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1980 के दशक के अंत में, जब भारतीय जनता पार्टी भारतीय राजनीति के मानचित्र पर पनप रही थी, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में अटल बिहारी वाजपेयी की एक रैली हुई थी. रैली में वाजपेयी को सुनने भारी भीड़ पहुंची थी. रैली में वाजपेयी के साथ पहुंचे प्रमोद महाजन भीड़ को देखकर उत्साहित थे. उन्होंने कहा, “अटलजी, अगर इसी वक्त वोटिंग और काउंटिंग करवा दी जाए, तो ये सीट पक्की है.”

तजुर्बेकार वाजपेयी ने बड़े भोलेपन से कहा, “प्रमोद, वोटिंग करवा लो, काउंटिंग रहने दो.” करीब एक दशक बाद उस घटना का जिक्र करते हुए महाजन ने बताया कि जब चुनाव के नतीजे आए, तो उस सीट पर बीजेपी उम्मीदवार हार चुका था.

चुनाव में अक्सर पुरानी धारणाएं सच्चाई पर हावी होती हैं और कहावतों को महिमामंडित कर सिद्धांत के रूप में मान्यता दी जाती है. लेकिन जब चुनाव के नतीजों में सारे सिद्धांत धुल जाते हैं, तो हकीकत सियासी खिलाड़ियों के माथे पर आए बल के रूप में दिखती है. 2019 आम चुनाव की वोटिंग का दो-तिहाई हिस्सा पूरा हो चुका है. इस दौरान हुए प्रवचनों में वोटरों को लुभाने के लिए जमकर पुरानी धारणाओं और कहावतों का इस्तेमाल किया गया.

लुभावने वादों के फायदा

मान्यता है कि मुफ्त तोहफों के लालच चुनावी बयार को अनुकूल बनाते हैं. चुनावों में दो तरह के मुफ्त तोहफों की लालच दी जाती है – चुनाव से पहले और चुनाव के बाद. इसके अलावा वोटिंग वाले दिन कैश भी खर्च किये जाते हैं. माना जा रहा है कि मौजूदा चुनाव में कुछेक राज्यों में हर वोटर को 2000 रुपये तक दिये गए हैं. चुनाव के बाद मुफ्त बिजली, सस्ता खाना, बिना ब्याज के कर्ज और कर्ज माफी जैसे लुभावने वादे आम बात हैं.

अर्थशास्त्र के मुताबिक चुनावी राजनीति में जरूरत और माकूल हालात के आधार पर रणनीति तय की जाती है. ऐसे में लुभावने वादे जरूरी हो सकते हैं, लेकिन काफी नहीं.उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी और कांग्रेस – दोनों ने ही खेती कर्ज माफ करने का वादा किया, लेकिन वोटरों की पसंद बीजेपी रही. 2018 में कर्नाटक में  

उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी और कांग्रेस – दोनों ने ही खेती कर्ज माफ करने का वादा किया, लेकिन वोटरों की पसंद बीजेपी रही. 2018 में कर्नाटक में कांग्रेस के अलावा बीजेपी और जेडी(एस) ने भी खेती का कर्ज माफ करने का लालच दिया, लेकिन वोटरों ने किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं दिया.

तमिलनाडु को लुभावनी राजनीति का गढ़ माना जाता है. लेकिन यहां भी वोटरों ने तकरीबन हर चुनाव में लुभाने वाली पार्टियों को नकारा है. हर लोकसभा चुनाव में पार्टियों के बीच लोक-लुभावन वादों की होड़ लग जाती है. उन पार्टियों को भरोसा होता है कि लुभावने वादों उनके अनुरूप नतीजे लाएंगे. जबकि सच्चाई ये है कि चुनाव से पहले और चुनाव के बाद वाले लुभावने वादों की उपयोगिता सीमित है.

2004 में एनडीए ने Long Term Capital Gains Tax समाप्त करने, सरकारी कर्मचारियों की पगार में 50 फीसदी Dearness Allowance जोड़ने, यात्रियों के लिए ड्यूटी-फ्री आयात बढ़ाने, खेती की जमीन खरीदने पर capital gains समाप्त करने, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के व्यापार की आउटसोर्सिंग कर मुक्त करने जैसे कई वादे किये, फिर भी उसे हार का सामना करना पड़ा.

दलील दी जाती है कि 2009 में कांग्रेस की जीत मनरेगा और एरगो सॉप्स की वजह से हुई. लेकिन सच्चाईयों का आकलन करें, तो ये तर्क बेमानी साबित होते हैं.

2009 में कांग्रेस की जीत के तीन स्तंभ थे – महाराष्ट्र में राज ठाकरे, आन्ध्र प्रदेश में चिरंजीवी और तमिलनाडु में विजयकांत.

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, प्रजा राज्यम पार्टी और देसिया मुरकोप्पु द्रविड कड़गम पार्टियों को कुल मिलाकर 1,12,20,026 वोट मिले. इन वोटों ने शिवसेना-बीजेपी गठबंधन, तेलुगूदेसम पार्टी और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम के वोटों में सेंध लगा दी. नतीजा ये निकला की कांग्रेस के आंकड़े ऊंची छलांग लगा गए.

दूसरी सच्चाई ये भी है कि 2013 में कांग्रेस ने कल्याण की सबसे बड़ी योजना – राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम शुरू किया, लेकिन 2014 के चुनावों में कांग्रेस को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा.

2014 से मोदी सरकार ने कल्याण की कई योजनाएं शुरू की हैं, मसलन, जनधन योजना, सुरक्षा बीमा योजना, आयुष्मान भारत, उज्ज्वला योजना, सौभाग्य योजना आदि.

जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार है, वहां इन योजनाओं और कार्यक्रमों को जोरदार तरीके से लागू किया गया और इसके फायदों का जमकर प्रचार किया गया. फिर भी बीजेपी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनी सरकारें नहीं बचा सकी.

पाकिस्तान और चुनावी जंग

जब भी देश को बाहरी ताकतों से खतरा महसूस होता है, सेना और सरकार का जोश देखने के काबिल होता है, चाहे वो पाकिस्तान के खिलाफ घोषित जंग हो, या सरकार संचालित आतंकवादी गतिविधियां.

ये सच है, और ये भी सच है कि लोग स्थायित्व के नाम पर भारी संख्या में वोट देते हैं. दूसरी ओर ये भी सच है कि जरूरी नहीं कि जंग के दौरान सरकार को दिया गया समर्थन अगले चुनाव में वोटों में बदल जाए.

सितम्बर 1965 में लालबहादुर शास्त्री की मजबूत अगुवाई में भारत ने पाकिस्तान पर आश्चर्यजनक जीत हासिल की थी. इसके बाद फरवरी 1967 में इन्दिरा गांधी की अगुवाई वाली सरकार को लोकसभा और विधानसभा चुनावों का सामना करना पड़ा था. कांग्रेस का नारा था – वन इंडिया, वन टीम.

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चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 44.7 फीसदी से फिसलकर 40 फीसदी पर पहुंच गया. 1962 के चुनाव में लोकसभा के 488 में से कांग्रेस के 361 सांसद थे, जबकि 1967 में 516 सीटों पर चुनाव के बाद उसके सांसदों की संख्या घटकर 283 रह गई. आठ राज्यों में कांग्रेस का पत्ता साफ हो गया. उन दिनों एक कहावत प्रचलित हुई – आप कलकत्ता से दिल्ली तक बिना कांग्रेस सरकार का सामना किये ड्राइव कर सकते हैं.

1998 लोकसभा चुनावों में बीजेपी को 182 सीट मिली. एक दर्जन पार्टियों के सहयोग से वाजपेयी सत्ता में आए. मई 1998 में भारत ने दो परमाणु परीक्षण किये और परमाणु ताकत सम्पन्न देशों में शुमार हो गया. लेकिन अप्रैल 1999 में वाजपेयी सरकार महज एक वोट से अविश्वास प्रस्ताव में चूक गई. मई 1999 में पाकिस्तानी सेना और सेना प्रायोजित हथियारबंद गुटों ने भारत पर चढ़ाई कर दी.

उस जंग को कारगिल युद्ध के नाम से जाना जाता है. जंग में पाकिस्तानी सेना को मुंह की खानी पड़ी और फिर सितम्बर 1999 में लोकसभा चुनाव हुए. चुनाव में 20 पार्टियों के गठबंधन वाली एनडीए को बहुमत तो मिला, लेकिन बीजेपी की सीट 182 पर ही बनी रही.

महत्त्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में 1998 में बीजेपी को 57 सीट हासिल हुई थी. लेकिन इस चुनाव में सीटों की संख्या 29 पर सिमट गई, जबकि उत्तर प्रदेश के नागरिक सेना में भरे हुए थे.सारे समीकरण और सारे कयास वाजपेयी और कल्याण सिंह के बीच तनातनी की भेंट चढ़ गए.  

सारे समीकरण और सारे कयास वाजपेयी और कल्याण सिंह के बीच तनातनी की भेंट चढ़ गए.

GDP ग्रोथ और सुधार

आर्थिक सुधारों से ग्रोथ की दर बढ़ती है और GDP की ऊंची दर से ज्यादा लोगों को गरीबी के कैदखाने से बाहर निकालने की संभावना होती है. बेहतर होता, अगर सुधार और GDP की ऊंची दर को जनता का समर्थन और वोट प्राप्त करने के लिए इस्तेमाल किया जाए, लेकिन राजनीतिक पर्टियों को ऊंची GDP दर या सुधारों का सेहरा अपने सिर पर बांधने में हिचकिचाहट होती है.

अब तक भारत की विकास दर सबसे तेज 1988-89 में रही. राजीव गांधी के शासन के दौरान इस समय विकास दर 10.16 फीसदी थी. नरसिम्हा राव सरकार ने लाइसेंस राज खत्म किया और भारतीय अर्थव्यवस्था को बंधनों से छुटकारा मिला. फिर भी दोनों ही सरकारों को 1989 और 1996 में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा.

कांग्रेस ने तो एके एंटनी की अगुवाई में ये जांच करने के लिए एक समिति भी बना डाली थी कि क्या सुधार गरीब विरोधी हैं? अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान भारत में कई मजबूत सुधार हुए-वित्तीय घाटा कम हुआ, ब्याज दरें कम हुईं और विकास कार्यों के लिए संसाधान जुटाने के लिए कई सरकारी सेक्टर का निजीकरण किया गया. इन कदमों का ही नतीजा था कि 2004 में भारत कम लागत और तेज विकास वाली अर्थव्यवस्था बनने में कामयाब हो सका. इसी से उत्साहित होकर बीजेपी के कर्ताधर्ताओं ने चुनाव में इंडिया शाइनिंग नारे का इस्तेमाल किया. चुनाव की नतीजा बताने की जरूरत नहीं. बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा था.

इंडिया शाइनिंग का नारा चौकस करने वाला था. यूपीए के पहले टर्म में GDP ग्रोथ तीन बार 9 फीसदी का आंकड़ा पार कर गया. लेकिन न कांग्रेस को और न मनमोहन सिंह को इस पर जश्न मनाने की जरूरत महसूस हुई. मोदी सरकार सबसे तेज अर्थव्यवस्था होने का दावा करती है. लेकिन 2019 के चुनाव प्रचार में जिस बात पर जोर दिया जाता है, वो है खैरात और कल्याण कार्यक्रम, GDP नहीं. वजह, वही पुरानी मान्यता है. और वो ये, कि अच्छी अर्थव्यवस्था सियासत के लिए बुरी होती है.

‘गरीबी हटाओ’ नारे के पांच दशक बाद भी सियासी हलकों में इसकी गूंज है. साफ है कि इस नारे से सुधार नहीं हुए, बल्कि गरीबी उन्मूलन महज नफा का नारा बनकर रह गया.

ज्यादा सड़कें, ज्यादा सीट?

ग्रामीण इलाकों में सड़क बनाने के लिए प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना भारत सरकार के सबसे कामयाब कार्यक्रमों में एक है. इस योजना के लिए तय लक्ष्य हासिल किये गए और उनके नतीजे भी देखने को मिले. अब तक 5.9 लाख किलोमीटर सड़कें बनाई जा चुकी हैं, जिनसे लाखों घरों को शिक्षण संस्थाओं, स्वास्थ्य केन्द्रों, शहरों, बाजारों और आजीविका के साधनों तक पहुंचने में आसानी हुई है.

इसके विचार ने 1999 के चुनाव नतीजों के बाद वाजपेयी और नितिन गडकरी की बातचीत में आकार पकड़ा था, जब वाजपेयी ने हंसी-हंसी में गडकरी से पूछा था कि क्या इंडिया और भारत के बीच फ्लाईओवर बनाना मुमकिन है? इसके बाद गडकरी और एक समिति ने ईंधन पर सेस लगाकर वित्त हासिल कर गरीबी कम करने की रणनीति तैयार की.

ये कार्यक्रम साल 2000 में शुरू किया गया, जिसके तहत 2.5 लाख किलोमीटर सड़क बनाने की योजना बनी. उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक गोल्डल क्वाड्रिलेटरल हाइवे बनाने की योजना वाजपेयी के शासन में ही शुरू हुई थी.

दिल्ली मेट्रो का सपना भी वाजपेयी के शासन में ही साकार हुआ. लेकिन 2004 के चुनाव में दिल्ली में बीजेपी को जोरदार हार का सामना करना पड़ा. राजधानी की 7 में से 6 सीटों पर वोटरों ने कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया.

2009 से 2014 के बीच कांग्रेस ने सिंचाई, सफाई, रेलवे, बंदरगाह, हवाई अड्डों, सड़क और पुलों पर पहले चरण की तुलना में ज्यादा खर्च किया. यानी 2009 से 2014 के बीच 2004 से 2009 की तुलना में सड़कें बनाने पर ज्यादा धन खर्च हुआ. लेकिन किलोमीटर के आंकड़ों से फायदा नहीं हुआ और यूपीए 2014 का चुनाव बुरी तरह हारी.

हाल में, यानी 2018 में बीजेपी को मध्य प्रदेश में हार का सामना करना पड़ा. जबकि हकीकत ये है कि प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना लागू करने में मध्य प्रदेश सबसे आगे था.

मध्य प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्रों को शहरों से जोड़ने के लिए 70,000 किलोमीटर सड़क बनाए गए. लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में सड़कें बीजेपी को जीत के मुकाम तक पहुंचाने में नाकाम साबित हुईं.

प्रसंगों का कवच

चुनावी नतीजे कई कारकों पर निर्भर करते हैं-जनसांख्यिकी से लेकर भूगोल तक, शिक्षा से लेकर आर्थिक विकास तक. लुभावनी बातों और वादों को प्रचार के दौरान वोटरों के दिलों में बिठाने की पार्टी मशीनरी की क्षमता पर काफी कुछ निर्भर करता है. दूसरी ओर, कई नेताओं की भूमिका विवादों से परे होती है, जबकि वोटरों की अपेक्षाएं इसके खिलाफ होती हैं. प्रभावशाली नेतृत्व वही है, जिसमें लोकमत सुनने और पहचानने की क्षमता होती है.

अक्सर राजनीतिक दल पद के जंजाल में फंसती हैं. मिसाल के तौर पर, जीत को लालच के नतीजे के रूप में देखना. तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति के लिए प्रत्यक्ष आय का विचार कारगर रहा, लेकिन कई मामलों में लुभावने वादों को वोटरों ने नकार दिया. 2018 में लुभावने कार्यक्रमों के बावजूद बीजेपी को तीन राज्यों में हार का सामना करना पड़ा. पार्टी इसे सत्ता विरोध लहर कह सकती है, लेकिन इन नतीजों को ग्रामीण इलाकों की तकलीफ का असर कहना बेजा नहीं होगा.

खेती की परेशानी और भ्रष्टाचार के आरोप लगातार नतीजों पर असर डालते रहे हैं.

1965 की लड़ाई में जीत के बावजूद चुनावों में कांग्रेस को कई सीटों का नुकसान और कई राज्यों में हार का सामना करना पड़ा. चुनाव से पहले दो साल तक खेती के क्षेत्र में विकास दर नकारात्मक रही थी. (1965-66 में 13.47% और 1966-67 में 2.29%).

इमर्जेंसी के बाद हुए चुनाव में इन्दिरा गांधी की हार में जनाक्रोश के साथ 1971 से 1977 के बीच चार साल तक खेती विकास दर में गिरावट का भी भारी योगदान था.

भ्रष्टाचार के बड़े आरोपों का भी चुनावी नतीजों पर भारी असर पड़ता है. रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार के आरोपों से 1989 में राजीव गांधी सरकार और भ्रष्टाचार के कई आरोपों के बाद 2014 में यूपीए सरकार सत्ता से बेदखल हुई थी.

कुल मिलाकर चुनावी गणित पर ‘शर्तें लागू’ का नियम लागू होता है. न्यूटन के गति के तीसरे नियम के मुताबिक हर क्रिया के समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है. भारत में होने वाले चुनावों में भी हर सिद्धांत उसके बराबर और विपरीत सिद्धांत से काट दिये जाते हैं. पुरानी कहावतें अक्सर दलीलों का आधार बनते हैं.

ये जानना भी जरूरी है कि ऑपरेटिव फैक्टर और नतीजे विकास के संदर्भ पर निर्भर करते हैं. 23 मई को फैसले का दिन है. उस दिन प्रचार के नैरिटव जीत के रूप में दिखेंगे... आखिरकार इतिहास वोटरों की कलम से ही लिखे जाते हैं.

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Published: 11 May 2019,03:22 PM IST

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