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नमस्कार! नहीं मैं रवीश कुमार नहीं, पर अगर आप टीवी पर आने वाली प्राइम टाइम डिबेट्स में अभी भी रुचि रखते हैं तो यह जरूर पढ़े, क्योंकि जाहिर सी बात है कि ये टीवी पर नहीं दिखाया गया होगा. अगर आपको याद हो तो कुछ महीने पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा भारत की मान्यता प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ताओं (ASHA Workers) को ग्लोबल हेल्थ लीडर्स अवार्ड से सम्मानित किया गया था. देश को गौरवान्वित करते हुए स्वास्थ्य की रक्षा में उनके उत्कृष्ठ योगदान के लिए अन्य 6 पुरस्कार विजेताओं के साथ ASHA Workers सम्मानित हुईं.
आशा वर्कर्स एक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (Community Healthcare Workers) है. भारत में दस लाख से भी ज्यादा आशा कार्यकर्ता देश के गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल सेवाएं (Primary Health Care Services) सुनिश्चित करती हैं. महिलाओं और बच्चों के बीच भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को कम करने के उद्देश्य से टीकाकरण प्रदान करना, गांव के अंदर अच्छी सेहत सुनिश्चित करना, संचारी रोग की रोकथाम नियंत्रण एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पैदा करना उनका मुख्य कार्य है.
अगर ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड व्यवस्था सेवाएं उपलब्ध कराना मुमकिन हो पाया तो उसका सारा श्रेय इन्हें ही जाता है, लेकिन दुख की बात है कि इतना कुछ करने के बावजूद अपने ही देश में अपनी ही न्यूनतम वेतन के लिए इन्हें लगातार सरकार से लड़ना पड़ रहा है.
ट्विटर में विशेष दिलचस्पी रखने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी बड़े उत्सव के साथ आशा कार्यकर्ताओं को एक स्वस्थ भारत सुनिश्चित करने में सबसे आगे बताते हैं.
इसमें एक आशा वर्कर से बातचीत के दौरान मालूम पड़ा कि वे सब गुजरात सरकार के सामने भी वेतन बढ़ोतरी की गुहार लगा चुकी हैं. दोनों ही जगह भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. ऐसे में केंद्र-राज्य की बहस बेबुनियाद है.
एक और आशा कार्यकर्ता ने बताया कि कोविड के दौर में ही नहीं ये बात उससे पहले 2018 की है. केवल गांधीनगर से दिल्ली तक का आने-जाने का बस का सफर 2000 से ऊपर का है. जो आशा वर्कर्स की एक महीने की सैलरी के बराबर है. ऐसे में आप सोच सकते हैं कि उनकी आर्थिक स्थिति कितनी गंभीर है. ऐसे में संवैधानिक प्रश्नों को पूछने की जरूरत है कि क्या स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने उनके वेतन और भत्तों में बढ़ोतरी करने की योजना पर विचार किया या नहीं.
सवाल ये याद आया कि प्रधानमंत्री जी आज कल रेवड़ियों की चर्चा में बड़ी दिलचस्पी ले रहे हैं. इस संदर्भ में जरा वे ये भी बता दें कि पीएमओ द्वारा आशा कार्यकर्ताओं को नियमित प्रोत्साहन राशि दोगुना करने से लेकर मुफ्त बीमा प्रदान किए जाने की 11 सितंबर 2018 की घोषणा जुमला थी, रेवड़ी थी या वेलफेयर स्कीम.
इसलिए गुजरात से आई आशा वर्कर्स की परेशानी सिर्फ उनकी ही नहीं, पूरे देश की आशा वर्कर्स की परिस्थिति को जनता और सरकार के सामने उजागर करता है.
इससे पहले अनेक राज्यों से आशा कार्यकर्ता न्यूनतम वेतन और कर्मचारियों के लाभ की मांग को लेकर एकत्र हुए थे. उनसे बातचीत के दौैरान उनकी नेता चंद्रिका सोलंकी, जो पिछले दस सालों से उनके हक दिलाने में लगी हैं, उन्होंने कुछ इस तरह बताया कि
सरकार को आशाओं को मासिक मानदेय प्रदान करना चाहिए और उन्हें सरकारी कर्मचारियों का दर्जा देना चाहिए.
ध्यान रहे...उन्हें फ्री का गैस सिलिंडर नहीं चाहिए. प्रधानमंत्री जी को याद दिला दें कि देश केवल अंबानी और अडानी से ही नहीं चलता. उनके गुजरात मॉडल की तस्वीर आज जंतर-मंतर पर सबके सामने है.