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बॉलीवुड एक्टर सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput) की मौत के करीब 5 साल बाद केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने जांच पर एक क्लोजर रिपोर्ट दायर की है. जिसमें एक्टर रिया चक्रवर्ती (Rhea Chakraborty) समेत उनके भाई, पिता को क्लीन चिट मिली है. ऐसे में जज बने बैठे एंकर, एक्टर, नेता, कथित सुशांत फैन और सोशल मीडिया के ट्रोल अब क्या करेंगे? माफी मांगेगे? इस वीडियो में हम रिया का केस ही नहीं बल्कि मीडिया ट्रायल, ऑनलाइन लिंचिंग करने वालों से भी मिलवाएंगे और उसके शिकार लोगों से भी. बताएंगे कि कैसे और क्यों कुछ मीडिया, नेता, पावरफुल लोग भीड़ को उकसाते हैं और इन सबके पीछे उनका मकसद क्या होता है.
झूठी खबरें सिर्फ गलत सूचना नहीं हैं
आप सबने फेक न्यूज के बारे में सुना होगा. लेकिन अब फेक न्यूज सिर्फ फेक न्यूज नहीं रह गया है. राइटर चेरीलिन इरेटन और जूली पोसेट्टी की एक किताब है - Journalism, fake news & disinformation- handbook for journalism education and training. इसमें लिखा है कि एक खबर होती है झूठी खबर, जिसे अंग्रेजी में Misinformation कहा जाता है, वहीं, दूसरा शब्द है Disinformation, जिसका अर्थ है जानबूझकर फैलाया गया झूठ या दुष्प्रचार और तीसरा होता है दुर्भावनापूर्ण सूचना (Malinformation).
भारत में यही तीनों खेल खेले जा रहे हैं. एग्जांपल के लिए आप रिया चक्रवर्ती का केस देख लीजिए.
इससे पहले कि कानूनी व्यवस्था अपना काम कर पाती, सोशल मीडिया ने रिया को दोषी करार दे दिया. #JusticeForSSR जैसे हैशटैग का इस्तेमाल एक नैरेटिव को गढ़ने के लिए किया गया. सबसे ज्यादा आवाज उठाने वालों में अब बीजेपी सांसद और अभिनेत्री कंगना रनौत भी शामिल थीं. जो खुद एक इंडिपेंडेंट महिला हैं. उन्होंने रिया को 'गोल्ड डिगर' कहा.
पूर्व पत्रकार और अब बीजेपी के नेता प्रदीप भंडारी ने इस बदनामी अभियान में अहम भूमिका निभाई. उन्होंने अपने पूर्व बॉस के साथ मिलकर रिया और उनके परिवार को परेशान किया और 'न्याय के लिए लड़ने' का दावा किया.
न्यूज एंकर नविका कुमार, जिन्होंने कभी 'सबूत से भरे बैग' होने का दावा किया था, सीबीआई को कोई सबूत नहीं दे पाईं.
मीडिया ट्रायल सिर्फ चरित्र हनन तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि यह रिया को बंगाली महिला होने के आधार पर स्टीरियोटाइप करने तक चला गया. स्टूडियो से उन पर काला जादू करने का आरोप लगाया गया. न्यूज चैनलों ने सदियों पुराने पूर्वाग्रहों को भुनाते हुए बेतुके ग्राफिक्स और सनसनीखेज हेडलाइन चलाईं.
अब सवाल यही तो है कि क्या ये सब लोग रिया चक्रवर्ती और उसके परिवार से माफी मांगेगे?
14 जून 2020 को सुशांत सिंह राजपूत की मौत हुई, तब देश कोविड के महामारी के दौर से गुजर रहा था लेकिन तब मीडिया और कुछ लोगों ने कोविड में नजर आई सरकारी कमियों को दिखाने को छोड़ सिर्फ सुशांत की मौत को दिखाने का फैसला किया. वजह थी टीआरपी और व्यूज. टीआरपी और डिजिटल वर्ल्ड में व्यूज के जरिए एड आता, पैसा ही पैसा. लेकिन हर बार डायरेक्ट पैसा नहीं इंवॉल्व होता है. दरअसल, कई बार गिव एंड टेक भी होता है. किसी एक समाज एक वर्ग को टारगेट करने के लिए पावरफुल लोगों के गुड बुक्स में जगह बनाई जाती है, ताकि पावरफुल की हेट वाली राजनीति को खाद पानी मिले, और साथ ही एंकर या मीडिया हाउस को सबसे पहले इंटरव्यू मिल सके. ताकि दोस्ती बनी रहे.
तबलीगी जमात का मामला ही ले लीजिए. जब कोविड हुआ था तब मीडिया से लेकर नेताओं ने तबलीगी जमात को स्प्रेडर कहा था. इन्हें ह्यूमिलिएट किया गया. जेल भेजा गया. हालांकि, दिल्ली की साकेत कोर्ट ने महामारी अधिनियम के तहत आरोपित 36 विदेशी नागरिकों को बरी कर दिया. बॉम्बे हाई कोर्ट ने 29 एफआईआर को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इस समूह को ‘बलि का बकरा’ बनाया गया था. तब अदालत ने सिर्फ पुलिस ही नहीं बल्कि मीडिया की कवरेज की भी आलोचना की और इसे प्रोपगेंडा बताया था. कोर्ट ने कहा था, “इन विदेशियों को वर्चुअली हैरेस किया गया.”
मीडिया ट्रायल- TRP बढ़ाने का एक पैटर्न
इसी तरह साल 2016 में फरवरी जब दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में एक प्रोटेस्ट के बाद उमर खालिद और कन्हैया कुमार को जेल हुआ तो मीडिया ने ये तक चला दिया कि पाकिस्तान, यूएई और बांग्लादेश तक फैला था उमर खालिद का संपर्क. ये एक नैरेटिव ही तो था, पाकिस्तान का नाम लाओ और बदनाम कर दो.
एक और मामला देखिए. मध्य प्रदेश के इंदौर में चूड़ी बेचने गए थे तस्लीम के खिलाफ भी ऐसे ही मीडिया और नेताओं ने गैंग बनाकर स्टूडियो से अटैक किया. झूठे केस में तस्लीम को 4 महीने जेल में रहना पड़ा. साढ़े तीन साल अदालत में अपनी इज्जत और इंसाफ के लिए लड़ना पड़ा. तब जाकर उसे अदालत ने दोषमुक्त कर दिया. लेकिन तस्लीम के खिलाफ झूठ फैलाने वालों का कुछ नहीं हुआ, शायद इसलिए ही ये लोग हर बार एक नैरेटिव सेट करते हैं, किसी को निशाना बनाते हैं और फिर तब तक कोई बेगुनाह साबित हो अगले निशाना ढूंढ़ते हैं.
कितनी झूठे नैरेटिव को गिनाएं? ऐसे न जाने कितने केस हैं, कभी भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में भारत की हार पर पटाखे फोड़ने के झूठे आरोप, तो कभी नसीर साहब जिंदाबाद को पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा बताकर एक कम्यूनिटी को टार्गेट करना.
इसलिए ही तो जैसे म्यूचुअल फंड को लेकर एक डिस्क्लेमर आता है कि Mutual fund investments are subject to market risks... इसी तरह अब कथित पत्रकारिता में भी डिस्क्लेमर आना चाहिए
अगर हम, खबरों के जिम्मेदार उपभोक्ता के तौर पर, मीडिया की कहानियों पर सवाल उठाना शुरू कर दें, तो हम भविष्य में होने वाले अन्याय को रोक सकते हैं. तो, अगली बार जब आप मीडिया ट्रायल होते देखें, तो खुद से और उनसे भी पूछें- जनाब, ऐसे कैसे?