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"झूठे गवाह" और 19 साल जेल: 2006 मुंबई ब्लास्ट में 12 मुस्लिमों को किसने फंसाया?

2006 मुंबई ब्लास्ट मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम रोक लगा दी है.

शादाब मोइज़ी
जनाब ऐसे कैसे
Published:
<div class="paragraphs"><p>झूठे गवाह और 19 साल जेल: 2006 मुंबई ब्लास्ट में 12 मुस्लिमों को किसने फंसाया?</p></div>
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झूठे गवाह और 19 साल जेल: 2006 मुंबई ब्लास्ट में 12 मुस्लिमों को किसने फंसाया?

फोटो: द क्विंट 

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11 जुलाई 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेनों में हुए सिलसिलेवार धमाकों ने पूरे देश को हिला दिया था. 187 लोगों की जान गई, 800 से ज़्यादा घायल हुए. इस भयावह घटना के 6,950 दिन बाद, यानी 19 साल बाद, बॉम्बे हाई कोर्ट ने 12 लोगों को बरी कर दिया, जिन्हें इन धमाकों का दोषी ठहराया गया था.

"हमारी जिंदगी के 19 साल छीन लिए... बिना गुनाह हमें 19 साल जेल में फंसाकर रखा गया. बॉम्बे ब्लास्ट में जो लोग मारे गए उनके परिवार और हमारे साथ, सबके साथ नाइंसाफी हुई. किसने उन 187 लोगों को मारा?"

ये सवाल हैं मोहम्मद अली के, उन 12 लोगों में से एक जिन्हें इस मामले में बरी किया गया है.

हालांकि, बॉम्बे हाई कोर्ट के इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम रोक लगा दी है, लेकिन यह भी साफ कर दिया है कि बरी किए गए लोगों को वापस जेल नहीं भेजा जाएगा.

दरअसल, बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले खिलाफ महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट से हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाने का अनुरोध किया. उन्होंने तर्क दिया कि हाई कोर्ट की कुछ टिप्पणियां MCOCA के तहत चल रहे अन्य मामलों को भी प्रभावित कर सकती हैं.

सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एमएम सुंदरेश और जस्टिस एनके सिंह की बेंच ने साफ किया कि सभी आरोपी जेल से रिहा हो चुके हैं, इसलिए उन्हें दोबारा जेल भेजने का सवाल ही नहीं है. हालांकि, कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल की दलीलों पर विचार करते हुए कहा कि हाई कोर्ट के फैसले को कानूनी मिसाल के तौर पर नहीं माना जाएगा और उस फैसले पर रोक लगाई जाती है.

पुलिस की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल

2006 के धमाकों के बाद मुंबई पुलिस ने 13 लोगों को गिरफ्तार किया था. इनमें कमाल अहमद, मोहम्मद साजिद मरगूब अंसारी, मोहम्मद माजिद, नवीद हुसैन खान, मो. फ़ैसल अताउर रहमान शेख, सुहैल महमूद शेख, आसिफ खान, एहतेशाम कुतुबुद्दीन सिद्दीकी, शेख मोहम्मद अली, जमीर अहमद, मुजम्मिल अताउर रहमान शेख, तनवीर अहमद और अब्दुल वहीद शेख शामिल थे.

शुरुआत में मुंबई एटीएस ने इन पर MCOCAलगाया और 2007 में UAPA भी लगाया गया. 9 साल बाद, 2015 में, एक स्पेशल MCOCA कोर्ट ने 13 में से 5 आरोपियों को मौत की सजा और 7 को उम्र कैद की सजा सुनाई, जबकि अब्दुल वहीद शेख को बरी कर दिया.

इन 12 लोगों ने बॉम्बे हाई कोर्ट में अपील की. हाई कोर्ट में 10 साल केस चला फिर फैसला आया कि ये सब बेकसूर हैं. इस पूरे मामले में एक ऐसा शख्स भी था जिसने अपनी बेगुनाही की खबर सुनने से पहले ही दुनिया छोड़ दिया. बिहार के मधुबनी जिले के बसोपट्टी के रहने वाले कमाल अहमद मोहम्मद वकील अंसारी की 2021 में कोविड के दौरान जेल में ही मौत हो गई.

जब कमाल को पुलिस ने गिरफ्तार किया तब उनके बेटे अब्दुल्ला अंसारी सिर्फ छह साल के थे. न्यूज18 से बात करते हुए अब्दुल्ला कहते हैं,

"उस उम्र में बच्चे बस ठीक से चलना सीखते हैं. मुझे ज्यादा कुछ याद नहीं. लेकिन जो यादें बाकी हैं, वे दर्द और तकलीफ से भरी हैं."

ATS ने कमाल अंसारी पर पाकिस्तान में हथियारों का ट्रेनिंग लेने, भारत-नेपाल बॉर्डर के रास्ते आतंकवादियों को लाने और मुंबई के माटुंगा स्टेशन पर विस्फोटक रखने का इल्जाम लगाया था. लेकिन अब्दुल्ला बताते हैं कि उनके पिता एक मजदूर थे, उन्होंने ऐसा नहीं किया.

क्या अब सरकारें, पुलिस, मीडिया कमाल के परिवार से माफी मांगेगे? उसकी बदनामी के दाग को कौन धोएगा?

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RTI ने खोली झूठे गवाह और मनगढ़ंत कबूलनामे की पोल

इस मामले में पुलिस ने आरोपियों को फंसाने के लिए कई हथकंडे अपनाए, जिनकी पोल RTI ने खोल दी.

  • गवाह नंबर 74 की झूठी गवाही: अभियोजन पक्ष के गवाह नंबर 74 ने विशेष मकोका अदालत में बताया था कि उसने एहतेशाम सिद्दीकी को चर्चगेट रेलवे स्टेशन पर एक काले बैग के साथ देखा था. इसी गवाही के आधार पर एहतेशाम को बम लगाने वाला बताया गया. लेकिन RTI से मिली जानकारी ने इस गवाह की पोल खोल दी. गवाह ने जिस अस्पताल में किसी से मिलने की बात कही थी, वहां उस नाम का कोई व्यक्ति नहीं था, और जिस बैंक में मिलने का दावा किया था, वह व्यक्ति भी वहां नहीं था. अदालत ने इस गवाह को पुलिस का 'स्टॉक गवाह' करार दिया, यानी एक ऐसा गवाह जिसे पुलिस हर केस में इस्तेमाल करती है. RTI से यह भी सामने आया कि यही गवाह पुलिस के लिए चार और मामलों में भी पेश हुआ था.

  • पहचान में देरी पर सवाल: पुलिस ने कुछ ऐसे गवाह भी पेश किए जिन्होंने ब्लास्ट के 100 दिनों बाद आरोपियों को पहचानने की बात कही. अदालत ने इस पर सवाल उठाया कि कोई इतने लंबे समय बाद किसी व्यक्ति का चेहरा कैसे याद रख सकता है. यह दर्शाता है कि पुलिस असली गुनहगारों को ढूंढने के बजाय आम लोगों को बलि का बकरा बना रही थी.

  • स्केच गवाह का अनुपस्थित होना: आरोपी के स्केच बनाने में मदद करने वाले गवाह को ट्रायल के लिए नहीं बुलाया गया और न ही उसे अदालत में आरोपी की पहचान करने के लिए कहा गया. यह एक बड़ा लूपहोल था.

  • कॉपी-पेस्ट कबूलनामे: पुलिस का केस ज़्यादातर कबूलनामों पर आधारित था, जो पुलिस ने अपनी कस्टडी में लिए थे. MCOCA की धारा 18 के तहत पुलिस के सामने दिए गए कबूलनामों को कोर्ट में मान्यता देता है. हालांकि, हाई कोर्ट ने इन कबूलनामों के आधार पर सजा देने से इंकार कर दिया, क्योंकि कोई पुख्ता सबूत मौजूद नहीं थे. कोर्ट ने यह भी पाया कि कई आरोपियों ने दो अलग-अलग अधिकारियों के सामने जुर्म कबूल किया था, लेकिन दोनों कबूलनामों में घटना का विवरण, यहां तक कि फुल स्टॉप और कॉमा भी हूबहू कॉपी-पेस्ट थे. कोर्ट ने इसे अविश्वसनीय माना.

बताइए पुलिस को ऐसे झूठे गवाह की जरूरत क्यों पड़ी? क्यों पुलिस असली गुनहगारों को ढूंढ़ने के बदले आम लोगों को बलि का बकरा बना रही थी?

2015 में इसी केस में बरी हुएम अब्दुल वाहिद शेख बताते हैं कि उन्होंने "हर दिन 20-25 आरटीआई एप्लीकेशन" दायर किए, जिनमें पुलिस स्टेशनों की लॉगबुक से लेकर अस्पताल के रिकॉर्ड और हर जरूरी जानकारी मांगी गई.

पीड़ितों की आवाज़: 19 साल का दर्द

मोहम्मद साजिद अंसारी, जो इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि से थे, बताते हैं, "मेरा इलेक्ट्रॉनिक्स का बैकग्राउंड था, इसलिए इन लोगों के लिए आसान था कहना कि ये टाइमर बम बनाने के लायक है. इसी वजह से मुझे टारगेट किया गया, इन्होंने रिकवरी के तौर पर मेरे मोबाइल रिपेयरिंग इंस्टीट्यूट के जो सामान थे और जो इलेक्ट्रॉनिक्स की चीजें थी रिपेयरिंग की उसे रिकवरी में दिखाया गया. हालांकि एफएसएल रिपोर्ट के अंदर क्लियर हुआ कि कुछ भी एक्सप्लोसिव मेरे पास नहीं मिला."

सोहेल शेख के भाई राहिल शेख बताते हैं कि पुलिस ने उनके घर से राशन कार्ड और कैश बुक तक ले ली थी. पुलिसकर्मी उन्हें आतंकवादी कहकर गाली देते थे, और कहते थे कि उनके भाई को फांसी लगेगी.

187 लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन है?

19 सालों तक इन लोगों के परिवार के साथ पुलिस, समाज, मीडिया, सरकारें, अदालत नाइंसाफी करती रहीं.

ऐसे में सवाल उठता है कि इन 12 लोगों और इनके परिवार के 19 साल के दर्द का जिम्मेदार कौन है? क्या उन लोगों को सजा मिलेगी जिन्होंने इन 12 लोगों को फंसाया था?

एक सवाल और है, 2006 के ब्लास्ट में 187 लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन है? उन परिवारों से सरकार क्या कहेगी जिन्होंने अपनों को खोया था? वो लोग लौटकर नहीं आएंगे लेकिन उनके कातिल को सजा भी नहीं मिली.

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