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हिंदी मतलब राष्ट्रवाद.. एकता.. हिंदुओं की पहचान..
अंग्रेजी मतलब elitism..
उर्दू मतलब कठमु्ल्ला.. मुसलमान
तमिल मतलब साउथ इंडिया.. अन्ना..
भारत में भाषा, जुबान, लैंगुएज को लेकर ऐसी ही कुछ धारणाएं बनाई जाती रही हैं. एक बार फिर तमिल बनाम हिंदी पर बहस शुरू है. लेकिन इस स्टोरी में हम सिर्फ तमिल vs हिंदी की जंग के पीछे की कहानी नहीं बताएंगे बल्कि ये भी बताएंगे कि भारत में भाषाओं के सहारे नफरत की बोली क्यों बोली जा रही है? ऐसा करने से किसे फायदा है? क्या दक्षिणी राज्य, उत्तर पूर्व, बंगाल, पंजाब जैसे राज्यों में हिंदी को थोपने की कोशिश हो रही है? क्या सच में वन नेशन वन लैंगुएज की भारत को जरूरत है, क्या यही भारत को जोड़कर रख सकता है?
सालों पुरानी तमिल और हिंदी को 'थोपने' की लड़ाई फिर से सुर्खियों में है. तमिलनाडु की एम के स्टालिन के नेतृत्व वाली डीएमके सरकार और केंद्र की मोदी सरकार हिंदी को लेकर आमने-सामने है. दरअसल, तमिलनाडु सरकार ने नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 को राज्य में लागू नहीं किया है. वजह है नई शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत स्कूलों में तीन भाषा फॉर्मूला. तमिलनाडु के सीएम का कहना है कि केंद्र सरकार हिंदी को बाकी राज्यों पर थोपना चाहती है, और यही वजह है कि केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री स्कूल्स फॉर राइजिंग इंडिया (PMSHRI) पहल में शामिल होने से इनकार करने पर समग्र शिक्षा योजना के तहत तमिलनाडु को मिलने वाले 2,152 करोड़ रुपये रोक दिए हैं
केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने भी कहा है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भारतीय भाषाओं को महत्व देने वाली है और इसमें कहीं भी ये नहीं कहा गया है कि हिंदी ही पढ़ाई जानी चाहिए.
हिंदी बनाम तमिल की लड़ाई को समझना है तो थोड़ा फ्लैशबैक में जाना होगा. और इसके लिए आपको ऊपर दिए वीडियो को देखना होगा.