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मुर्दे वोटर लिस्ट में! 65 लाख नाम किसके कटे?EVM से SIR तक चुनाव आयोग पर सवाल

बिहार में चुनाव आयोग का SIR विवादों में है—कहीं बिना फॉर्म के नाम जुड़ा, कहीं फॉर्म देने पर भी कटा.

शादाब मोइज़ी
जनाब ऐसे कैसे
Published:
<div class="paragraphs"><p>चुनाव आयोग पर गंभीर सवाल</p></div>
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चुनाव आयोग पर गंभीर सवाल

(फोटो: द क्विंट)

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चुनाव आयोग की ओर से बिहार में शुरू किया गया स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) सवालों के घेरे में है. कभी बिना फॉर्म जमा किए ही फॉर्म जमा होने का मैसेज मिलता है तो कभी फॉर्म जमा करने के बाद भी लिस्ट से नाम गायब.

ये कुछ नाम हैं—मोहम्मद अशरफ अंसारी, सैयद नैयर आजम, चांद बेबी, मनोअर सुलताना… और भी कई नाम शामिल हैं.

असल में, ये सभी लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन चुनाव आयोग की लिस्ट में अब भी “जिंदा” हैं. लगता है, चुनाव आयोग मरने वालों के लिए SIR (Special Intensive Revision) की जगह SAR—Special Aatma Revision करा रही है.

चुनाव आयोग के बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) सीधे मरने वालों से संपर्क करके उनका फॉर्म भर देते हैं… और साइन भी ले आते हैं.

इस वीडियो में हम आपको SIR में मिल रही गड़बड़ियों के अलावा चुनाव आयोग की उन कारगुजारियों की कहानी बताएंगे जिसे हर वोटर को जानना चाहिए. इस वीडियो में ईवीएम, वोटर काउंट, वोटर डिलीशन, एसआईआर, मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट जैसे मुद्दों पर चुनाव आयोग कहां खड़ा है वो भी बताएंगे, ताकि आप भी पूछ सकें जनाब ऐसे कैसे?

चुनाव आयोग कहता है- 'सब ठीक है', लेकिन वोटर लिस्ट में नाम बचाने को मुकेश को सैकड़ों किलोमीटर का सफर करना पड़ा.

बिहार के नालंदा के रहने वाले मुकेश नौकरी की तलाश में हैदराबाद पहुंचे और वहां एक राइस मिल में काम करने लगे. चुनाव आयोग के आनन-फानन में लिए गए फैसले से मुकेश परेशान हैं. वे कहते हैं,

मैं हैदराबाद में काम करता हूं, घर से कॉल आया कि वोटर कार्ड नया बनवाना होगा नहीं तो नाम कट जाएगा. तो हम नालंदा भागकर आ गए. अगर नाम नहीं होगा तो कह देंगे भारत का वासी नहीं है. वोटर लिस्ट में जगह बनाने के लिए मुझे 7500 रुपए खर्च करने पड़े. पहले गए तो सिर्फ आधार कार्ड लेकर फॉर्म ले लिया. अब जब वापस आ गए हैं तो बीएलओ कहता है कि कागजात दीजिए. यही बात पहले कहते. अब काम करें यहां या वो कागज देखें?

मुकेश के कई सवाल हैं, जिन पर हम आगे बात करेंगे. उससे पहले, आप देखिए कि चुनाव आयोग ने कैसे गोल पोस्ट बदल दिया.

चुनाव आयोग ने SIR के लिए पहले "विदेशी अवैध प्रवासी" शब्द का इस्तेमाल किया, फिर यह शब्द उसकी डिक्शनरी से अचानक गायब हो गया. हालांकि, बीच में चुनाव आयोग के एक बिना नाम वाले अधिकारी यानी सूत्रों के हवाले से यह कहा गया कि SIR में डोर-टू-डोर सर्वे के दौरान नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार के लोग मिले हैं—मतलब, अवैध विदेशी नागरिकों का पता चला है.

लेकिन अब तक, पहले ड्राफ्ट जारी होने के बाद भी चुनाव आयोग ने यह नहीं बताया कि ऐसे कितने लोग हैं और वे कौन हैं.

चुनाव आयोग ने SIR के जरिए 65 लाख लोगों के नाम हटा दिए हैं. आयोग का कहना है कि जिन लोगों की मृत्यु हो गई (22 लाख), जो स्थायी रूप से बिहार छोड़कर अन्यत्र बस गए या जिनका पता नहीं चल सका (36 लाख), और जिनके पास दो वोटर कार्ड थे (7 लाख), उनके नाम वोटर ड्राफ्ट रोल से हटा दिए गए हैं.

लेकिन सवाल यही है—जिनका नाम हटा है, उन्हें यह कैसे पता चलेगा? क्योंकि चुनाव आयोग ने यह डेटा पब्लिक डोमेन में जारी ही नहीं किया. क्यों?

चुनाव आयोग द्वारा शेयर किया गया डेटा

चुनाव आयोग ने तीन तरह के डेटा शेयर किए हैं:

(i) ड्राफ्ट रोल (फोटो के बिना): वेबसाइट पर अपलोड है, आम जनता देख सकती है.

(ii) फोटो के साथ ड्राफ्ट रोल: यह डेटा खास तौर से राजनीतिक दलों को दिया गया है

(iii) हटाए गए नामों की लिस्ट: जिन वोटरों के नाम वोटर ड्राफ्ट से कटे हैं.

लेकिन यहीं तो असली खेल है. चुनाव आयोग कहता है कि 22 लाख लोग मर चुके हैं, 35 लाख माइग्रेट कर चुके हैं, एक लाख लोगों का पता ही नहीं चल सका और 7 लाख ने दो इलेक्शन आईकार्ड बना रखे थे. ऐसे में सवाल है कि चुनाव आयोग ने हटाए गए नामों के साथ "वजह" (कारण)—यानी कोई मृत है शिफ्टेड है या डुप्लिकेट कार्ड धारक है ये क्यों नहीं बताया?

दूसरा सवाल जिन लोगों का नाम हटाया गया है उनका EPIC नंबर, पता क्यों नहीं पब्लिक डोमेन में है, यहां तक की राजनीतिक दल के पास भी ये जानकारी नहीं है.

बीएलओ ने आधार कार्ड लिया, EC बोला अमान्य

चुनाव आयोग ने पहले कहा 11 डॉक्यूमेंट्स लगेंगे. फिर कहा कुछ भी दे दो, बीएलओ ने लोगों से आधार कार्ड तक ले लिए. इसी आधार कार्ड को लेकर चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था

इन्हें एसआईआर के मकसद को देखते हुए “standalone documents” के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता. कोर्ट में अपने हलफनामे में EC ने कहा, "आधार केवल पहचान का प्रमाण है. इस कार्ड पर ही यह लिखा होता है कि यह नागरिकता का प्रमाण नहीं है."

अब सवाल यही है कि जब आधार कार्ड मान्य ही नहीं है तो पहली बार में बीएलओ ने वो क्यों लिया. क्यों मुकेश पासवान जैसे लोगों को दोबारा डॉक्यूमेंट्स जमा करने की परेशानी उठानी पड़ रही है? किस बात की हड़बड़ी थी? मुकेश 10वीं पास है तो उन्होंने अपने परिवार को वो डॉक्यूमेट्स दे दिया लेकिन मुकेश के जीजा 10वीं पास नहीं हैं. उन्हें अब 11 डॉक्यूमेंट्स में से कोई एक बनवाने की चिंता है.

सीतामढ़ी के एक परिवार ने द क्विंट को बताया कि उनसे बीएलओ ने सिर्फ आधार कार्ड ही मांगा था. वे आगे कहते हैं—

"SIR प्रक्रिया के दौरान BLO द्वारा हमारे घर पर सभी सदस्यों से कहा गया था कि केवल आधार कार्ड ही जमा करना होगा, लेकिन अब SIR ड्राफ्ट जारी होने के बाद एक बार फिर से वैध दस्तावेज जमा करने को कहा जा रहा है.

अब हम आपको चुनाव आयोग की एक और कहानी बताते हैं— बेगूसराय के साहेबपुर कमाल विधानसभा क्षेत्र के वोटर प्रशांत अपने X (ट्विटर) हैंडल पर लिखते हैं कि उनका नाम वोटर ड्राफ्ट लिस्ट में नहीं है, जबकि उन्होंने फॉर्म भी भरा था, कई बार वोट भी किया है और उनके पास वोटर आईडी कार्ड भी है.

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2003 में नहीं था नागरिकता प्रमाण का नियम, तो 2025 में क्यों लागू हुआ?

आप एक और कमाल देखिए— चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक हलफनामे में दावा किया कि 2003 में बिहार में हुए स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन के दौरान जनता से नागरिकता के प्रमाण मांगे गए थे.

लेकिन पत्रकार पूनम अग्रवाल ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 2003-2004 में बिहार समेत 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में गहन पुनरीक्षण के दौरान चुनाव आयोग ने वोटरों से "नागरिकता" का प्रमाण देना अनिवार्य नहीं किया था.

तो फिर सवाल है—2025 में ऐसा क्यों हुआ?

EVM विवाद: वोट कम पड़े या ज्यादा?

स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन के बाद अब आते हैं EVM से जुड़े कुछ सवालों पर. 2024 लोकसभा चुनाव के बाद यह सामने आया कि कई लोकसभा सीटों पर गिने गए EVM वोटों और EVM में डाले गए वोटों की संख्या में अंतर था.

  • तमिलनाडु की तिरुवल्लूर सीट – यहां 14,30,738 वोट EVM में डाले गए थे, लेकिन गिनती में 14,13,947 वोट ही निकले—यानी 16,791 वोट कम. ये कैसे हुआ?

  • असम की करीमगंज सीट – यहां 11,36,538 वोट EVM में डाले गए, लेकिन नतीजों में 11,40,349 वोट गिने गए—यानी 3,811 वोट ज्यादा.

इसी तरह क्विंट ने 2019 लोकसभा चुनाव में वोटों की गिनती को लेकर एक इंवेस्टिगेटिव स्टोरी की थी, अपनी पड़ताल में क्विंट ने पाया था कि वोटों की गिनती के बाद कई सीटों पर मतदान से ज्यादा वोट काउंट दर्ज किये गए थे. मतलब ईवीएम में पड़े वोट और गिने गए वोट में फर्क था. हालांकि चुनाव आयोग का कहना था कि "ये सभी आंकड़े प्रोविजनल हैं, डेटा अनुमानित हैं और इसमें बदलाव हो सकते हैं." लेकिन चार महीने बाद भी ऐसा नहीं हो सका था.

ईवीएम को फूलप्रूफ बताने वाले चुनाव आयोग ने 2019 लोकसभा चुनाव के 4 महीने के अंदर ही VVPAT पर्चियां को नष्ट कर दिया था. क्यों? किस बात की जल्दी थी? जबकि चुनाव कानून 1961 के नियम 94 (b) में कहा गया है कि किसी भी चुनाव की VVPAT पर्चियों को एक साल तक संभाल कर रखा जाना चाहिए.

2019 में क्विंट ने ही बताया था कि चुनाव आयोग के लिए EVM बनाने वाली कंपनी THE Electronics Corporation of India Limited यानी ECIL ने चुनावों के दौरान EVM और VVPAT की देखरेख के लिए मुंबई की एक फर्म से कन्सल्टिंग इंजीनियर लिए. सवाल है कि, क्यों चुनाव आयोग इतने संवेदनशील मामले पर किसी प्राइवेट हाथों में काम दे रहा था?

मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट या कागजी नियम?

अगर चुनाव आयोग के कामकाज को देखें, तो एक और अहम प्वाइंट है मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट. 21 अप्रैल 2024 को, राजस्थान के बांसवाड़ा में एक चुनावी सभा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने मुसलमानों को “घुसपैठिया” कहा.

पहले जब उनकी सरकार थी तब उन्होंने कहा था. देश के संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार मुसलमानों का है. इसका मतलब ? ये संपत्ति इकट्ठा करके किसको बांटेंगे ? जिनके ज्यादा बच्चे हैं उनको बांटेंगे. और उनको बांटेंगे जिनको मनमोहन सिंह जी की सरकार ने कहा था कि संपत्ति पर पहला अधिकार मुसलमानों का है. ये अर्बन नक्सल की सोच, मेरी माताओ, बहनो, ये आपका मंगलसूत्र भी बचने नहीं देंगे.
प्रधानमंत्री मोदी

इसपर क्या कोई बड़ा एक्शन हुआ था? नहीं. इसी तरह 2024 लोकसभा चुनाव में धर्म के नाम पर वोट मांगे गए, बार-बार राम मंदिर का जिक्र हुआ. गृह मंत्री अमित शाह अपनी रैली में हिंदुओं के आराध्य राम की तस्वीर दिखाते हैं, प्रधानमंत्री असम में अपनी रैली में जय श्रीराम और राम लक्षमण जानकी, जय बोलो हनुमान की का नारा लगाते हैं. तो क्या धर्म के नाम पर वोट मांग सकते हैं?

शायद चुनाव आयोग ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (THE REPRESENTATION OF THE PEOPLE ACT) की धारा 123 को पढ़ना जरूरी नहीं समझा. जहां साफ लिखा है कि वोट मांगने के लिए धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर भारतीय नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच घृणा पैदा कराना भ्रष्ट आचरण है.

डीयर चुनाव आयोग , सवाल उठाना गुनाह नहीं है बल्कि एक बेहतर, ट्रांस्पैरेंट सिस्टम बनाने के लिए जरूरी है. लोगों का चुनाव और लोकतंत्र में विश्वास बना रहे इसके लिए जवाब भी देने होंगे और सुधार भी करने होंगे.

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