हिंदी में राजनीति, राजनीति में हिंदी   

‘हिंदी हिंदू हिंदुस्तान’ जैसे भडकाऊ नारों से भाषा का राजनीतिकरण न केवल गलत है, वह अलगाव को गहरा सकता है |
Mrinal Pande
BOL
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भाषा की मुहिम में केंद्र की दबंगई या शॉर्टकट नहीं चलेंगे |
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(Photo: Wikipedia/Modified by The Quint)


भाषा की मुहिम में केंद्र की दबंगई या शॉर्टकट नहीं चलेंगे |
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केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्री वेंकैया नायडू ने हिंदी को भारत की सबसे उपयुक्त राष्ट्रभाषा कह कर एक बार फिर हिंदी- विरोध का भिडों का छत्ता छेड़ दिया है | केंद्र की सरकार द्वारा दक्षिण भारत या बंगाल पर हिंदी थोपे जाने के खिलाफ सबसे अधिक मुखर वे अहिंदीभाषी विद्वान हैं, जो खुद अपनी मातृभाषा(बांग्ला या तमिल या कन्नड़ादि ) में नहीं लिखते-पढते, न ही हिंदी से इतर भारतीय भाषाओं के मीडिया से उनका कोई समझदार निजी नाता है | क्षेत्र विशेष तक सीमित भाषाओं की जो पैरवी वे (सिर्फ अंग्रेज़ी मीडिया में) करते हैं उसका व्यापक जनभाषा से वही रिश्ता है जो हास्य कविसम्मेलनों का असल कविता से | अपने सूबे में सरकारी राजकाज के लिये भी वे कन्नड़ या मलयालम माध्यम की पैरवी नहीं करते | उनका अंतिम निष्कर्ष यही रहता है कि अंग्रेज़ी भी एक भारतीय भाषा है और उसे ही भारत की आदर्श संपर्क भाषा और जनभाषा माना जाना चाहिये |

आज गाँधी जी होते तो लगातार राजनीतिकरण से अहिंदीभाषी इलाके की जनता को गुस्से से पागल बनानेवाली भाषा नीति को तुरत जबरन धुकाने का समर्थन न करते |

गौरतलब है कि जब गाँधी जी ने 1918 में आठवें हिंदी सम्मेलन में हिंदी को भारत में सत्याग्रह द्वारा अंग्रेज़ों के उपनिवेशवाद के सक्षम विरोध के लिये राष्ट्रीय भाषा के रूप में चुना था तो जनमत उनके साथ था | पर आज़ादी के बाद संविधान की साफ सलाह के बावजूद सरकारें कोई साफ भाषा नीति बनाने और लागू करने से बिदकती रहीं | उधर द्रमुक सरीखे क्षेत्रीय दल हिंदी के खिलाफ मुहिम चला कर चुनाव जीतते रहे |

तब से आज तक राष्ट्रभाषा का सवाल एक दिशाहीन जहाज़ की तरह असमंजस के सागर में डोल रहा है | और इस बीच (चूंकि साक्षरता दर बने के बाद भी देश के दस फीसदी लोग भी अंग्रेज़ी फर्राटे से नहीं बोलते, पढते या समझते)लोकतंत्र के बावजूद राजकाज आम भारतीय के लिये एक तरह की गुप्त विद्या में गढा गया रहस्यमय टोना टोटका बन गया है जिसमें बिना (मोटी फीस वसूलनेवाले) गुणी-पंडों- ओझा की मदद लिये उनकी कोई सीधी भागीदारी असंभव है |

असल सलटाने लायक झगड़ा हिंदुस्तानी भाषाओं और अंग्रेज़ी के बीच है, हिंदी और दूसरी भाषाओं के बीच नहीं |

झगड़ा अंग्रेज़ी से

यह ठीक है कि आज ग्लोबल दुनिया में वित्त से लेकर प्रकाशन जगत तक का सूचना संप्रेषण कार्य अधिकतर अंग्रेज़ी की मार्फत हो रहा है | लेकिन यह भी गौरतलब है कि घरेलू स्तर पर चीन जापान या फ्रांस में लोकतंत्र और लोकसंप्रेषण की भाषायें स्थानीय ही हैं | वहाँ आम जन नई तकनीकी में उपलब्ध अनुवाद की मदद से टूटी फूटी अंग्रेज़ी से ठीक ठाक काम चला कर गर्व महसूस करता है | पर

असल सलटाने लायक झगड़ा हिंदुस्तानी भाषाओं और अंग्रेज़ी के बीच है, हिंदी और दूसरी भाषाओं के बीच नहीं | हिंदी पर तो चतुरता से खीझ की गाज गिरवाई जाती रही है ताकि उच्च वर्ग के अंग्रेज़ीदां ओझा पंडों की वर्गसीमित जिजमानी सुरक्षित रहे |

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हिंदी का मानक रूप

हिंदी के खिलाफ दूसरा तर्क यह है कि इसमें छात्रों और शोध करनेवालों के लिये ज़रूरी किताबें, जर्नल या शाब्दिक भंडार नहीं हैं और विविधता के कारण उसका कोई सर्वग्राह्य मानक रूप बनाना असंभव होगा | सच तो यह है कि

भारत में भी गदर के बाद जब ब्रिटिश सरकार ने सीधे जनसंवाद और नये ज्ञान विज्ञान की तालीम के लिये भारतीय जनभाषाओं का महत्व माना, तो अवध में कई वर्नाकुलर पाठशालायें खोली गईं और अदालती भाषा जटिल फारसी की बजाय उर्दू हिंदी बनीं | 1857 की कडवी यादों के बावजूद नई पीढी को आधुनिक शिक्षा सुविधा दिलाने को उतावली जनता ने इस मुहिम का स्वागत किया कि साल भर के भीतर दसेक हज़ार बच्चे उनमें दाखिला ले चुके थे | इसीके साथ नवलकिशोर प्रेस सरीखे छापेखाने सरकारी मदद पा कर रातों रात हर विषय पर हर तरह की पाठ्यपुस्तकें हिंदी उर्दू में फटाफट छापना शुरू किया | न लेखकों की कमी आडे आई और न ही खरीदारों की कमी हुई |

केंद्र की दबंगई

यहाँ बल देकर यह कहना ज़रूरी है, कि जनभाषा के सहज विकास और राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता कायम करने के लिये ‘हिंदी हिंदू हिंदुस्तान’ जैसे भडकाऊ नारों से भाषा का राजनीतिकरण न केवल गलत है, वह अलगाव को गहरा सकता है | गाँधी महापुरुष थे क्योंकि उन्होने मूक जनता को जनभाषा दी | पर वे सिद्धांत और व्यावहारिकता के समसामयिक तकाज़े महीन तरह से पकड सकते थे | आज वे भी होते तो लगातार राजनीतिकरण से अहिंदीभाषी इलाके की जनता को गुस्से से पागल बनानेवाली भाषा नीति को तुरत जबरन धुकाने का समर्थन न करते | जनता की भावनाओं का खयाल कर सरकार को व्यावहारिक और उदार बन शनै: शनै: आगे बढना होगा | भाषा की मुहिम में केंद्र की दबंगई या शॉर्टकट नहीं चलेंगे |

(This article was sent to The Quint by Mrinal Pande, senior journalist and author, for our Independence Day campaign, BOL – Love your Bhasha. Would you like to contribute to our Independence Day campaign to celebrate the mother tongue? Here's your chance! This Independence Day, khul ke bol with BOL – Love your Bhasha. Sing, write, perform, spew poetry – whatever you like – in your mother tongue. Send us your BOL at bol@thequint.com or WhatsApp it to 9910181818.)

(At The Quint, we are answerable only to our audience. Play an active role in shaping our journalism by becoming a member. Because the truth is worth it.)

Published: 02 Aug 2017,03:01 PM IST

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